राजकाज: कुरेदते हो जो अब राख…
जब आप बिहार में वर्दीवाला राजनेता पर चुप थे तो एक बार उत्तर प्रदेश में देख लीजिए कि आखिर किस तरह मजबूत जाति के लोग बलात्कार के आरोपियों के पक्ष में रैली निकालते हैं और पुलिसवाले उनका साथ देते दिखते हैं।

‘बलात्कार के आरोपी ऊंची जाति के हैं वो निचली जाति की स्त्री को हाथ भी नहीं लगा सकते’। भंवरी देवी के साथ नाइंसाफी करती ये आवाज तीन दशक पहले अदालत में गूंजी थी। मगर भंवरी को अब तक इंसाफ नहीं मिला। इतने समय बाद भी कुछ नहीं बदला। आज भी बलात्कार के मामलों में दबंगों के पक्ष में उसकी बिरादरी से लेकर पुलिस तक खड़ी हो जाती है। कुछ ही समय पहले की बात है जब लोगों ने सड़कों पर उतर कर निर्भया के लिए न सिर्फ इंसाफ हासिल किया था बल्कि दिल्ली में कांग्रेस की सत्ता भी हिला दी थी। वहीं दिल्ली से दूर एक दलित परिवार अंतिम संस्कार के लिए अपनी बेटी का शव भी हासिल नहीं कर सका। अंधेरी रात में वह सत्ता की बेशर्मी और अपने मौलिक अधिकारों को जलते देखता रहा। भंवरी देवी अपने साथ हुई नाइंसाफी तीन दशक में साबित नहीं कर पाईं तो अब जली देह क्या साबित कर पाएगी। बीते दिनों राख हुई सत्ता की साख को कुरेदता बेबाक बोल।
‘जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है’
-मिर्जा गालिब
रात के अंधेरे में उत्तर प्रदेश के एक इलाके में जो जिस्म जला वो दबंगई और पितृसत्ता के प्रतिनिधि चेहरे की पीड़िता का था। लेकिन जो दिल जला वह निरंकुश हाकिम का था, जिसने उसके जिंदा रहते हुए कुछ नहीं किया। मरने के बाद विशेष कार्यबल के गठन और परिवार को मदद पहुंचाने जैसा जो काम किया वह मानवता वाले दिल से नहीं, सियासी समीकरण वाले दिमाग से किया। हाकिम अगर दिल का हुक्म मानता तो जुबां पर संस्कार और आधी रात के बाद अंतिम संस्कार होता? जिंदा रहते तो उसके साथ इंसाफ नहीं किया लेकिन मृत देह के साथ अन्याय करने में रामराज्य के नारे लगाने वाली सरकार अव्वल आएगी यह हमने कहां सोचा था।
अपनी होश में यह पहला मामला है जब देश के लोकतांत्रिक राज में पुलिस सुरक्षा के बीच मां-बाप की इच्छा के खिलाफ उसकी बेटी का रातों-रात अंतिम संस्कार कर दिया गया। तब सिर्फ किसी की बहन, बेटी नहीं देश की एक नागरिक की चिता जलाई जा रही थी। कानून के रखवाले जब यह काम कर रहे थे तो संवैधानिक दिशानिर्देश भी पंचतत्व में विलीन हो रहे थे। पुलिसवाले भूल गए थे कि आजाद भारत के संविधान ने मृत देह को भी अधिकारों से लैस किया है। अंग्रेजी राज में भी ऐसा होता था कि औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ उठी आवाजों की देह उनके घर की देहरी तक नहीं पहुंचने दी जाती थी।
कमजोर पर दबंगों के अत्याचार की यह कोई पहली घटना नहीं है। लेकिन कुछ समय से पुलिस और अन्य संस्थाओं से जुड़े लोग जिस तरह बेखौफ होकर सत्ता के लिए काम करते दिख रहे हैं वह एक भयावह मंजर खड़ा कर चुका है। पहले साख बचाने के लिए ही सही थोड़ा दुराव-छिपाव भी होता था। लेकिन पुलिस जमात जिस तरह से बेशर्म होकर दबंगों के साथ खड़ी हो जाती है, यह उसका नया रूप है और हमें इसका आदि बनाने की कोशिश की जा रही है। इन दबंगों का चेहरा क्षेत्र और राजनीति के साथ बदलता रहता है।
कुछ दिनों पहले बिहार के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जब मुंबई में सुशांत के ‘हत्यारों’ का पता लगाने गए थे तब आम जनता उनके सिंघम स्वरूप पर मर्दानगी का जयघोष कर रही थी। दूसरी ओर उनके डीजीपी अपनी वर्दी की साख को ताक पर रख रिया चक्रवर्ती को कह रहे थे कि उसकी औकात नहीं है नीतीश कुमार पर सवाल उठाने की तो जनता उन्हें रॉबिनहुड घोषित कर रही थी। लेकिन अचानक वे रॉबिनहुड की छवि से बाहर निकल कर एक राजनीतिक दल का चोला ओढ़ लेते हैं तो जनता उनसे सवाल नहीं करती कि आपने हमें ठगा क्यों। मुझे ड्रग्स दो, ड्रग्स दो कह चिल्लाने वाले स्वयंभू राष्ट्रवादी एंकर एक बार भी उनसे नहीं पूछते कि पूछता है भारत ऐसा आपने क्यों किया।
जब आप बिहार में वर्दीवाला राजनेता पर चुप थे तो एक बार उत्तर प्रदेश में देख लीजिए कि आखिर किस तरह मजबूत जाति के लोग बलात्कार के आरोपियों के पक्ष में रैली निकालते हैं और पुलिसवाले उनका साथ देते दिखते हैं। एक स्त्री जो अब मर चुकी है, उसका बलात्कार के आरोप वाला वीडियो वायरल है और पुलिस अधिकारी बलात्कार की बात से ही इनकार कर रहे हैं। इस लेख के छापेखाने से निकलने तक इनकार और स्वीकार अपने कितने नाम बदलेंगे यह सोच के खौफजदा हूं। फिर भी एक तथ्य नहीं बदलेगा कि पुलिस का काम इंसाफ का आश्वासन देना है, अपराध और अपराधी के पक्ष में जनमत बनाना कतई नहीं।
संवैधानिक अधिकारों की बदौलत पिछले कुछ दशकों में कमजोर तबकों का मजबूत होना कथित अगड़े वर्ग को रास नहीं आ रहा। जिस मजबूती को किसी खास जाति में पैदा लेने के कारण जन्मसिद्ध अधिकार माना जाता है उसे संविधान हर किसी को कैसे दे सकता है? खासकर गांवों-कस्बों में ये दबंग संगठित होकर अपनी हुकूमत सामंती व्यवस्था के तहत ही चलाना चाहते हैं। हाथरस में प्रशासन पर दबाव बनाने का एक खास तरह का जातिवादी समीकरण और पुलिस का बदलता हुआ बयान भी दिखा। पुलिस अधिकारी कहते हैं कि बलात्कार नहीं हुआ तो इस अपराध के पीछे क्या था? एक बात तो साफ है कि दलित स्त्री की गरिमा और अस्तित्व की नृशंस हत्या हुई है।
जातिगत विद्वेष में यौन उत्पीड़न के असंख्य मामले पूरे देश के थानों में दर्ज हैं। इन सबके बावजूद अगर पुलिस प्रशासन बलात्कार की बात से इनकार कर रहा है तो इसका कारण समझा जा सकता है। इसका खमियाजा है कि अपराधी बेखौफ हो रहे हैं कि हम कुछ भी करेंगे तो हमें बचा लिया जाएगा। मेरे पीछे कोई संगठन खड़ा हो सकता है। अपराधियों के हौसले बढ़ाती इस नई समझ को हम जितनी जल्दी समझ लें, एक सभ्य समाज की सेहत के लिए उतना ही अच्छा रहेगा।
पूरे देश में यौन उत्पीड़न के मामलों पर सरसरी नजर डालेंगे तो ज्यादातर में यह सशक्त होती महिला को सबक सिखाने का मामला होता है। कोई कमजोर तबके की लड़की स्कूल जाते समय सरेराह इसलिए उठा ली जाती है क्योंकि सामंती प्रवृत्ति के लोगों को उसका स्कूल जाना पसंद नहीं। किसी स्त्री का इसलिए सामूहिक बलात्कार किया जाता है कि शहरी मर्दों को ये पसंद नहीं कि वह आधी रात के बाद स्कूटी या कार लेकर घर से बाहर निकले। हर जगह पुरुषों के वर्चस्व वाली छोटी-छोटी सत्ता अपने पास मजबूत होती स्त्री को कुचल देना चाहती है क्योंकि उसे भरोसा है कि बड़ी सत्ता उसका साथ देगी।
पितृसत्ता को हम इसके उलट भोपाल में पुलिस अधिकारी के वायरल वीडियो से भी समझ सकते हैं। वहां एक स्त्री भी दूसरी स्त्री के साथ मर्दवादी व्यवहार कर रही है। वर्चस्व का यह विचार पितृसत्ता के अंदर से निकल कर आता है और यही यौन हिंसा की बुनियाद बन जाता है। हर जाति, धर्म और वर्ग में यौन हिंसा स्त्री पर नियंत्रण रखने का हथियार बन चुकी है। इसे हम सुशांत सिंह राजपूत की मौत के सिलसिले में देख भी चुके हैं।
रिया के पीछे पितृसत्ता की ताकतें इसलिए पड़ीं क्योंकि वह सुशांत के साथ सहजीवन के आधुनिक रिश्ते में थी। वह सुशांत की ब्याहता नहीं थी इसलिए पूरी व्यवस्था को पवित्रता का दर्द उठा और उसे सुशांत का कातिल साबित करने पर तुल गई। रिया को टीवी चैनल से लेकर सोशल मीडिया पर डायन और काला जादू करने वाली बताना भी यौन हिंसा का ही रूप है।
जाति और धर्म की सत्ता के मजबूत हुए बिना पितृसत्ता दरकती दिखने लगती है। इसलिए पितृसत्ता के कमजोर होते ही जाति, धर्म और अन्य तरह के सामाजिक वर्चस्व का सहारा लिया जाने लगता है।
आधुनिक संविधान के जरिए इसकी बुनियाद नहीं जम पाती है तो जाहिर तौर पर वे पारंपरिक व्यवस्था की बुलंदी चाहते हैं। संविधान के दिए आधुनिक अधिकारों पर काफी समय से वैचारिक हमला हो रहा है। परंपरावादी ताकतें उन्हें कमजोर करने पर तुली हैं और इसका सबसे बड़ा खमियाजा भुगतना पड़ रहा है स्त्रियों को। अब ऐसी मानसिकता पैदा हो रही है कि यौन हिंसा एक तरह का यज्ञ है जिसमें मर्दवादी ताकतों को मजबूत करने के लिए स्त्री को आहुति देनी ही पड़ेगी। यौन हिंसा मर्दानगी का एक उत्सव है जिसमें यौन सुख नहीं वर्चस्ववाद का सुख है। स्त्री को सजा देने की इस विचारधारा को समझना पड़ेगा। यह विचारधारा भारतीय समाज को किस तरफ ले जा रही है? आखिर इसका अंत कहां है?