न कोई वादा न कोई यकीं
न कोई उम्मीद
मगर हमें तो
तिरा इंतजार करना था
-फिराक गोरखपुरी
बजट (Budget) इस शब्द के लैटिन मूल (Latin Origin) से जो भी अर्थ लगाया जाए, भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian Economy) में इसका भावार्थ (Gist) है सपने (Dreams) और संयम (sobriety) के बीच की दीवार। रोटी-कपड़ा और मकान की बुनियादी जरूरतों (Basic Needs) के बाद आपके बटुए में जो बचता है, उसे कहते हैं बजट। यानी, आम लोगों की जिंदगी का मार्गदर्शक (Guiding Force) और संविधान (Constitution) सरीखा है बजट।
बच्चों के लिए क्रिकेट का बल्ला और ‘बार्बी’ की गुड़िया खरीदने के लिए पैसे बचा लेना है बजट। शगुन में पांच सौ रुपए मिल जाना और फिर किसी के शगुन में ग्यारह सौ का लिफाफा बनाना है बजट। घर की सीलन पड़ी दीवारों की मरम्मत के लिए पैसे बचाना है बजट। शादी की पच्चीसवीं सालगिरह पर गुलमर्ग या शिमला जाने का खर्च वहन कर लेना है बजट।
बजट और बचत में ध्वन्यात्मक साम्य होना अर्थशास्त्रीय संयोग की बात हो सकती है, लेकिन भारतीय अर्थव्यस्था की धुरी मध्य-वर्ग के लिए ये सहचर शब्द हैं। जिस देश में बजट शगुन के गीत सरीखा हो, वहीं अब यह सरकार की तरफ से ‘हलवा-रस्म’ जैसा ही रस्मी रह गया है। जीएसटी के इस युग में सस्ता-महंगा की सूची तो इतिहास की बात हो गई है, बजट के आंकड़ों को भी इतना पेचीदा बना दिया गया है कि वह आम आदमी को आसमानी बातें लगती हैं। हजार, लाख, करोड़ को पुराने जमाने का करार देकर अर्थशास्त्र विशेषज्ञ अब बिलियन, ट्रिलियन में बोलने लगे हैं। और, अगर उनका बोला आम आदमी समझ जाए तो समझिए यह पूरी सरकार की साख पर सवाल है।
‘कर दिए जाओ और बचत की चिंता मत करो’
बजट-भाषण में महाभारत के श्लोकों का इस्तेमाल तो होता है, लेकिन सरकार उसके यक्ष-प्रश्नों से परहेज कर आम आदमी को ‘कर दिए जाओ और बचत की चिंता मत करो’ का संदेश देती है। उसके बाद भी महंगाई पर उठे सवाल को ‘मैं प्याज नहीं खाती’ जैसी तुच्छ सी टिप्पणी के इर्द-गिर्द समेट दिया जाता है। सरकार कोई भी हो बजट भाषण अब चुनावी भाषण जैसा हो गया है, जिसके जरिए विपक्ष पर हावी होने की कोशिश दिखती है। बजट से जुड़े विश्लेषण के लिए सबसे क्रांतिकारी विशेषण है ‘कड़वी दवा’। अगर मध्यवर्गीय मरीज दवा की शिकायत करेगा तो उसे मरने योग्य ही मान लिया जाएगा।
प्रगति के आंकड़ों से आम आदमी चकाचौंध
आम तौर पर बजट का दो तरह से विश्लेषण होता है। पहला कि वह आम आदमी को कहां ले जाएगा, दूसरा वह आंकड़ों के मामले में देश को कहां ले जाएगा? अब देश के सामने नागरिक भला कहां ठहरेगा, लेकिन सवाल तो पूछेगा ही कि जब देश इतना आगे जा रहा है तो मैं पीछे क्यों हूं। क्या मैं इस देश का हिस्सा नहीं हूं। वह साल 2014 था जब आयकर छूट की सीमा को सालाना ढाई लाख तक की तनख्वाह तक बढ़ाया गया था। आम आदमी पिछले नौ साल से इस छूट के आगे बढ़ने का इंतजार कर रहा है, लेकिन उसके सामने देश की प्रगति के इतने सारे आंकड़े हैं कि वह चकाचौंध है।
हर बजट के साथ सस्ती होने वाली चीजें सिकुड़ती जा रही हैं। शायद आने वाले समय में स्कूली विद्यार्थी सामान्य ज्ञान की किताबों में पढ़ेंगे कि आम बजट में आखिरी बार चीजें सस्ती कब हुई थी। पहले बजट के साथ सस्ता और महंगा का एक विमर्श तैयार किया जाता था। सोना सस्ता होने पर महिलाओं को बधाई तो सिगरेट महंगा होने पर सेहत की दुरुस्तगी के गीत गाए जाते थे।
अखबार, टीवी, और रेडियो आम आदमी के सपने पूरे होने और टूटने के विश्लेषण से भरे होते थे। गृहणियों के पास पत्रकार जाकर पूछते थे कि आप बजट को कितने नंबर देंगी। अंतराल में ही सही एक साल का बजट किसान तो दूसरे साल का उद्योगों के नाम होता था। लेकिन, इसकी केंद्रीय-धुरी तो मध्य-वर्ग ही रहता था।
चुनाव से पहले वाला बजट काफी लुभावना होता है
किसी सरकार के पांच साल के कार्यकाल में आम आदमी को चार साल तक कुछ नहीं मिलता था। सिर्फ पांचवें साल के बजट को लोकप्रिय माना जाता था क्योंकि सरकार को वोट लेने की खातिर राहत दिखानी होती थी। यह दूसरी बात है कि वह राहत आम आदमी तक पहुंचने की उम्मीद में साल ही खत्म हो जाता था। खबरों की सुर्खियों में सस्ती हुई चीजें जमीन पर कीमत का आसमान ही छूती रही हैं। आम आदमी तो साल भर इसी खबर से जूझता रहता है कि दूध के दाम फिर एक या दो रुपए प्रति लीटर बढ़े तो आटा से लेकर डाटा तक इतना महंगा हुआ।
अब लोगों की नजर फरवरी के बजट सत्र पर नहीं बारहमासा रसोई गैस सिलेंडर से लेकर पेट्रोल व प्राकृतिक गैस की कीमतों पर रहती है। आम आदमी के बजट को सबसे ज्यादा प्रभावित पेट्रोल और डीजल की कीमतें करती हैं। सरकारें पेट्रोल की कीमत बढ़ाने के लिए अब किसी सत्र और फरवरी का इंतजार नहीं करती तो फिर आम आदमी के लिए भी बजट से कोई वसंती उम्मीदें नहीं रही हैं।
सरकार के बजट और भाषण से मध्य-वर्ग गायब
भारत में बजट सिर्फ अमीर और गरीब का मामला नहीं है। अमीर और गरीब के बीच की कड़ी यानी रीढ़ की हड्डी है मध्य-वर्ग। पिछले दशकों में सूचना-तकनीक की नौकरियों की बदौलत भारत का मध्य-वर्ग दुनिया भर में पहुंचा और बाजार का ध्रुवतारा बना। एक बड़ा वर्ग मध्य से ऊपर की छलांग लगा कर उच्च में पहुंच गया। बटुए में क्रेडिट कार्ड ने जगह बनाई और बच्चों के लिए मिट्टी की गुल्लक की खरीदारी बंद हो गई। बचत वाला वर्ग ज्यादा से ज्यादा खपत की ओर मुड़ा। बाजार में खरीदार का खिताब पाते ही सरकार के बजट और भाषण से भी मध्य-वर्ग गायब होता गया।
आज, गिनती की सरकारी नौकरियों के बीच सूचना तकनीक की नौकरियों में छंटनी का दौर शुरू हो गया है। अब तक नौकरियों का सिरमौर बना रहा गूगल कर्मचारियों की छंटनी कर अपनी पूरी ऊर्जा कृत्रिम बौद्धिकता पर खर्च कर रहा है। लंबे समय से दफ्तरी तरक्की कर रहे तकनीकविदों की बड़ी संख्या को बोझ बता एलन मस्क ने घर का रास्ता दिखा दिया है। मस्क ट्वीटर पर भी अपने दफ्तर के बजट को कम करने की जुगत भिड़ाते दिखते हैं।
तकनीक कंपनियों, ट्वीटर और गूगल में छंटनी से भारत पर भी असर
एलन मस्क जिस मस्ती से कर्मचारियों की अच्छी तनख्वाह और ज्यादा नौकरी को बोझ बता चुटकुला बना रहे हैं दुनिया भर की तकनीक-कंपनियां उसे गंभीरता से ले रही हैं। उनके लिए यह चुटकुला नहीं बाजार में आगे बढ़ने का स्वीकृत सा होता ढांचा है। तकनीक कंपनियों, ट्वीटर और गूगल के मुख्यालय में नौकरी के संकट का सीधा असर भारत के उस वर्ग पर पड़ रहा है, जिसने अभी-अभी तो बचत नहीं खपत का नारा लगाया था। अब वह वर्ग बजट की बात कहते हुए घर की ओर लौट रहा है। लेकिन, सुबह के भूले के शाम तक लौटने के बाद घर भी उजाड़ के कगार पर है।
नौकरी जाने की चिंता से हर युवा बेचैन
कई तरह के आर्थिक सर्वेक्षण दावा कर रहे हैं कि नौ से पांच की नौकरी को हिकारत से देखने वाले हर चार में से एक भारतीय इस चिंता में है कि उसकी किसी भी समय-अंतराल में नौकरी बचेगी या नहीं। नवाचार और ‘यूनीकार्न’ अपने उच्च पर पहुंच कर ढलान की ओर हैं। साइबर सिटी, सिलिकान वैली, साइबराबाद जैसी नई बस्तियों के बाशिंदों के बीच पेंशन को श्राप की तरह देखनी वाली नई सरकारों पर पुरानी पेंशन योजना को वापस लाने का चुनावी बोझ बढ़ रहा है। बजट में पेश आंकड़े कहते हैं नया अच्छा है, पुराना बोझ है।
वहीं आम आदमी की हकीकत कहती है नया तो नौ दिन तक नहीं खा पाए वही सौ दिन वाला पुराना दे दो। बजट पेश होने के पहले दोहरे इंजन वाली महाराष्ट्र सरकार भी पुरानी पेंशन के डब्बे को जोड़ने के संकेत देती नजर आ रही है। तो क्या, इस बार के बजट में चमकते बढ़ते आंकड़े बनाम सिकुड़ते आम आदमी की उम्मीदों पर बहस होगी? आम आदमी बटुए में वसंत का इंतजार कर सकता है?