दुनिया आज ऐसी गति से बदल रही है कि मनुष्य स्वयं को इस परिवर्तन के बीच खोता हुआ महसूस करने लगा है। खाने-पीने से लेकर कपड़ों तक के मामले में हर दिन नए ब्रांड की बड़ी दुकानें बाजार में उतर रही हैं।

इसी तरह सौंदर्य प्रसाधन सामग्री, सौंदर्य प्रयोगशालाएं, जिम, योगासन केंद्र जीवन का हिस्सा बन गए हैं। तकनीकी चमत्कारों, उपभोक्तावादी संस्कृति और भौतिक उपलब्धियों की चमक ने जीवन को बाहर से जितना उजला बनाया है, भीतर से उतना ही अंधेरा बढ़ा है।

हर ओर चमकते व्यावसायिक माल, ऊंची इमारतें, नामी और महंगी ब्रांड वाली वस्तुएं, नई-नई संभ्रांत कालोनियां- ये सब विकास की तस्वीर के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं, लेकिन इन्हीं चमकीली दीवारों के पीछे इंसानी रिश्तों में गहरी दरारें उभर रही हैं।

परिवार बिखर रहे हैं, संबंधों में कृत्रिमता बढ़ रही

आज व्यक्ति चारों ओर से घिरा होकर भी अकेला होता जा रहा है। परिवार बिखर रहे हैं, संबंधों में कृत्रिमता बढ़ रही है और मानवीय मूल्य धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं। चकाचौंध के पीछे एक गहरी अंधेरी सच्चाई छिपी है- इंसानी रिश्तों का क्षरण, मानवीय संवेदनाओं का पतन और मूल्यों की लगातार टूटती हुई परतें।

आज विकास की दौड़ में इंसान जितना बाहर से सफल दिख रहा है, भीतर से उतना ही खाली, अकेला और विखंडित होता जा रहा है। समाज आधुनिक हो रहा है, पर मनुष्य भावनात्मक रूप से गरीब। सारी चहल-पहल, उसका स्तर और गुणवत्ता आधुनिकता की चकाचौंध से आलोकित होकर जीवन को निर्धारित कर रही है।

घरों में भी लोग जीवन साझा नहीं करते

कभी मानव जीवन का सार संवेदनाओं, संवाद और सह-अस्तित्व पर आधारित था, लेकिन आज की व्यस्तता और सुविधावाद ने मनुष्य को इतना यांत्रिक बना दिया है कि जीवन की मूल भावनाएं ही उसके हाथ से फिसल गई हैं। घरों में भी लोग जीवन साझा नहीं करते। आपस में कोई जीवंत संवाद नहीं। माता-पिता के पास बच्चों के लिए समय नहीं, बच्चों के पास माता-पिता की भावनाएं समझने का अवसर नहीं। रिश्तों में गर्माहट की जगह औपचारिकता और दायित्व की जगह सुविधा ने ले ली है। संवाद का स्थान संदेशों ने ले लिया है और संवेदनाओं का स्थान ‘इमोजी’ ने।

आज इंसान को इस आधार पर आंका जा रहा है कि उसके पास क्या है, इससे नहीं कि वह क्या है। महंगी कारें, बड़े फ्लैट, विदेशी यात्राएं, पांच-सितारा भोजन- इन सबको आधुनिक जीवन का सूचक माना जाने लगा है। आज भौतिक संपन्नता बढ़ी है, पर मानसिक और भावनात्मक गरीबी भयावह रूप से फैल रही है।

पहले संयुक्त परिवारों में एक-दूसरे का साथ, सहयोग और सुरक्षा मिला करती थी। जिन रिश्तों में पहले आत्मीयता थी, अब वे लेन-देन और औपचारिकता में बदल रहे हैं। नए-नए धनाढ्य क्षेत्रों और उच्च तकनीकी से लैस कालोनियों में रहने वाले लोगों के घर भले ही बड़े होते जा रहे हों, पर दिलों के कमरे सिकुड़ते जा रहे हैं।

दूसरे से बेहतर होने की चाह में स्वयं से दूर चला गया इंसान

अगर विकास का अर्थ केवल तेजी से दौड़ना है, तो यह दौड़ व्यक्ति को भीतर से थका रही है। अगर विकास का अर्थ केवल उपभोग है, तो यह उपभोग व्यक्ति की आत्मा को खोखला कर रहा है। हम उस समाज में पहुंच गए हैं, जहां मनुष्य मशीन की तरह काम करता है और मशीनों से भावनाएं सीखने की कोशिश करता है। प्रतिस्पर्धा इतनी तीव्र हो चुकी है कि व्यक्ति दूसरे से बेहतर होने की चाह में स्वयं से दूर चला गया है।

हर कोई अपने पड़ोसी, सहकर्मी, रिश्तेदार से तुलना करता है और उसी तुलना के कारण हीनभावना, जलन और तनाव पनपते हैं। यह प्रतिस्पर्धा केवल आर्थिक या पेशेवर नहीं, बल्कि जीवनशैली की भी हो गई है। कौन किस प्रकार का जीवन जी रहा है, किसके पास कौन-सा ब्रांड है, किसके घर में कौन-सी सुविधा है- इन सब बातों ने समाज को भीतर से तोड़ दिया है।

एकल परिवार भी टूटने की कगार पर

परिवार कभी जीवन की सुरक्षा-दीवार था। आज वह दीवार दरक रही है। संयुक्त परिवार तो लगभग समाप्त हो चुके हैं और एकल परिवार भी टूटने की कगार पर हैं। तकनीक ने दुनिया को छोटा किया, पर दिलों के बीच की दूरी बढ़ा दी। आज का मनुष्य स्वयं को साबित करने की दौड़ में इतना खो गया है कि उसे अपने ही लोग बोझ लगने लगे हैं। हर कोई दूसरे से आगे निकलना चाहता है- पड़ोसी, रिश्तेदार, मित्र से ही नहीं, बल्कि अपने ही परिवार से।

इस तुलना और प्रतिस्पर्धा ने प्रेम, विश्वास, ईमानदारी और सहयोग जैसे मूल्यों को जर्जर कर दिया है। क्या वाकई हम विकसित हो रहे हैं? जब समाज में अवसाद बढ़ रहा हो, बच्चों का बचपन छिन रहा हो, बुजुर्ग अकेले मर रहे हों, पड़ोसी का नाम भी कोई न जानता हो, समाज में हिंसा, लालच और अविश्वास बढ़ रहा हो, तो क्या वह समाज विकसित कहलाने योग्य है? विकास केवल अर्थव्यवस्था, आधारभूत संरचना या तकनीक से नहीं होता, विकास मानवीय रिश्तों से होता है, मूल्यों की मजबूती से होता है, संवेदनाओं के विस्तार से होता है। लेकिन चकाचौंध में पड़ा व्यक्ति आत्मकेंद्रित हो जाता है।

इस बदलते समाज में सबसे ज्यादा नुकसान उन मूल्यों का हुआ है जो मानवता की नींव थे- विश्वास, प्रेम, त्याग, सहयोग, सहिष्णुता और सत्यनिष्ठा। आज इन मूल्यों को पुरातन कहकर भुलाया जा रहा है। जब मनुष्य अपने भीतर की संवेदना खो देता है, तो उसके बाहरी ‘विकास’ की चमक बेमानी हो जाती है।

मानवता एक दोराहे पर खड़ी है

आज मानवता एक दोराहे पर खड़ी है- एक ओर चकाचौंध, दूसरी ओर चिरस्थायी शांति और प्रेम। हमें तय करना है कि हम किस दिशा में जाना चाहते हैं। अगर विकास की दौड़ में रिश्ते टूटें, मूल्य बिखरें और मनुष्य ही खो जाए, तो वह विकास नहीं, विनाश है। अब समय है कि हम रिश्तों को फिर से जोड़ें, मूल्यों को फिर से अपनाएं और विकास को मानवीय बनाएं।

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