कथा, नाटक, काव्य, जीवनी, निबंध आदि के परंपरागत राजमार्ग पर चलने का मतलब है कि इन विधाओं में अभी तक जो लिखा जा चुका है और उस आधार पर उनकी श्रेष्ठता के जो प्रतिमान निर्मित हो चुके हैं, उनसे आगे का कुछ लिखना। सिर्फ नया होने के आधार पर श्रेष्ठता की दावेदारी संभव नहीं। इसके लिए विधाओं के तल पर तोड़फोड़ जरूरी हो जाती है। यह जो ‘खुले पाठ’ की अवधारणा है, वह कमजोर कृतियों की पनाहगाह नहीं है। वह नए को परंपरागत से बेहतर बनाने की जद्दोजहद है। यह कृतियों की स्थानीयता की सीमाओं से आजाद होने के आत्मसंघर्ष से जुड़ी वह बात है, जो उन्हें समय के असीम विस्तार की ओर खोलती है।
जूलिया क्रिस्तेवा पहली आलोचक हैं, जिन्होंने ‘खुले पाठ’ को ‘अंतर्पाठीय पद्धति’ के रूप में विकसित किया। जैसे ‘खुले पाठ’ की अवधारणा के जनक के रूप में अंबर्तो ईको की बात होती है, उसी तरह ‘अंतर्पाठीय आलोचना’ की जननी क्रिस्तेवा हैं। आधुनिक दौर में साहित्य की रचना प्रक्रिया के अंतर्पाठीय होते जाने की प्रवृत्ति के कारण वे इस अवधारणा के विकास की ओर आईं। वैसे टीएस इलियट ने पहले ही लक्ष्य किया था कि साहित्य की सभी कृतियों की गहरी संरचनाओं में सभी पूर्व पाठ स्मृतियों में मौजूद होते हैं।