स्त्रियों का भी है पुरुषार्थ /पुस्तक समीक्षा: कई रंगों से जीवन के संघर्षों को सहेजा
Book Review: अपने रचना क्रम में रिश्तों के मुखौटे उतरने के बाद कवयित्री एक ऐसे काल्पनिक पुरुष का भी सृजन करती है जो स्त्री-मन के अनुकूल हो। ऐसे पुरुष के भावों को उकेरते हुए जब वे लिखती हैं तो उनका स्त्री संवाद पूर्ण हो जाता है।

Book Review: सांत्वना श्रीकांत के सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह को पढ़ते हुए आभास होता है कि स्त्रियां भी जीवन के हर पुरुषार्थ को जीती हैं। वस्तुत: बाल्य अवस्था से लेकर यौवन आने तक स्त्री जीवन का हर काल एक आख्यान है। अगर उसका प्रेम महाकाव्य बन जाता है तो उसके आंसुओं से युद्धगाथा भी लिखी जाती है। साहित्य हो या जीवन, हम स्त्री को प्रकृति के विराट रूप में ही पाते हैं। वह अपने ज्ञान मार्ग के अंत में पुरुष को बुद्ध रूप में देखना चाहती है तो खुद भी बुद्धत्व प्राप्त करना चाहती है। यही उसका मोक्ष है।
अपने विविध रूपों में नारी कई भूमिकाएं निभाती है। कई रिश्ते गढ़ती है। पुरुष उसके गुण-सौंदर्य का रसिया है तो उसका सबसे बड़ा छलिया भी। इनके द्वंद्व में फंसी स्त्री को इस पार से उस पार जाना है। यही उसकी अनंत यात्रा है। डॉ. सांत्वना श्रीकांत ने नारी जीवन के श्वेत-श्याम रंगों को बाल्य अवस्था से देखा है। पिता की अंगुली पकड़ कर चलती बेटी हो या किशोर वय की तरफ बढ़ती सकुचाई-सी लड़की हो, जिस पर पुरुषों की निगाहें कांटे की तरह गड़ी होती हैं, इन सब को उन्होंने शब्द दिए हैं।
कवयित्री ने जीवन संघर्ष को कई रंगों से ऐसे सहेजा है कि नारी के मनोभावों की पूरी तस्वीर सामने आ जाती है। जब वे इस समाज की मानसिकता पर नश्तर चलाती हैं तो मदर्वादी समाज की पोलपट्टी खोलने के साथ रजस्वला युवती के हर माह स्त्री होने के संघर्ष को भी स्वर दे देती हैं। फिर इस समाज के बंद दिमाग में भरा मवाद ही नहीं बहता बल्कि स्त्री के लाल रंग को गौरव भी मिलता है। सृजन के लाल रंग की भावपूर्ण व्याख्या सांत्वना श्रीकांत को एक समर्थ कवयित्री बनाती है।
सांत्वना की नायिका जिस पुरुष से प्रेम करती है, वह उन्मुक्तता की आड़ में प्रेम का अभिनय करता है फिर दूसरी स्त्री के सौंदर्य में खो जाता है। इसलिए ऐसे पुरुषों को लेकर कई सवाल हैं उसके मन में। वह कई बार पुरुषत्व को चुनौती देती है- मैं दासी नहीं, स्वामिनी इस पुरुषत्व की, अलग नहीं तुमसे ये। तुम्हारा ये जो पुरुषत्व है न, मेरी वजह से ही है, सुनो मेरे पुरुष….। दरअसल, डॉ. सांत्वना की स्त्री बुद्ध की मोक्ष प्राप्ति और यशोधरा की विरह वेदना के शीर्ष पर बने शिखर पर जाकर उस पुरुष से मिलना चाहती है, जो अपने पुरुषार्थ को पूरा करता हुआ उसकी ओर आगे बढ़ रहा है। क्योंकि एक पुरुषार्थ वह भी जी रही है।
अपने रचना क्रम में रिश्तों के मुखौटे उतरने के बाद कवयित्री एक ऐसे काल्पनिक पुरुष का भी सृजन करती है जो स्त्री-मन के अनुकूल हो। ऐसे पुरुष के भावों को उकेरते हुए जब वे लिखती हैं तो उनका स्त्री संवाद पूर्ण हो जाता है। उनकी कविता ‘राधा का प्रथम पुरुष’ में स्त्री-पुरुष के लौकिक प्रेम की अलौकिक व्याख्या है- तुम्हारे अधरों की तृषा को/ सिंचित कर रही राधा से / जैसे रोज तृप्त होते हैं कृष्ण / ठीक वैसे ही मैं भी / पूरित कर लेना चाहती हूं / अपनी सोई हुई तृषा/ तुम्हारे ललाट पर उतर कर।
अजनबियों में भी अपनापन तलाश लेने वाली स्त्री के सफरनाने का ही दूसरा नाम है स्त्री का पुरुषार्थ। एक ऐसी स्त्री जो सपनों की उड़ान तो भरती है, मगर जमीनी सच्चाइयों के साथ भी वह जुड़ी है। इसलिए उसकी अनंत यात्रा लौकिकता से अलौकिकता की ओर बढ़ती दिखाई देती है। कोई दो राय नहीं कि सांत्वना श्रीकांत का काव्य संग्रह एक नई भाव-यात्रा पर ले जाता है, जहां से आप स्त्री के मन को ही नहीं, उसके पुरुषार्थ को भी बखूबी समझेंगे।
काव्य संग्रह-स्त्री का पुरुषार्थ, प्रकाशन-सर्वभाषा ट्र्स्ट, उत्तम नगर, नई दिल्ली, मूल्य-250 रुपए